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कहते रहे…बुलाती है मगर जाने का नहीं, मौत ने बुलाया और चल दिए

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नई दिल्ली: मशहूर शायर राहत इंदौरी की ये शायरी शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे याद न हो. लेकिन पूरी जिंदगी, ‘बुलाती है मगर जाने का नहीं, ये दुनिया है इधर जाने का नहीं…’ कहने वाला ये शायर कोविड के संक्रमण के बाद जब अस्पताल में भर्ती हुआ तो मौत के आवाज लगाने पर खुद ही उसकी ओर चल पड़ा. मंगलवार को राहत इंदौरी साहब ने इंदौर के अरविंदो अस्पताल में अपने जीवन की अंतिम सांस ली.

इससे पूर्व सुबह उन्होंने खुद ट्वीट कर अपने कोविड संक्रमित होने की जानकारी दी थी।

उन्होंने कहा था कि Covid-19 के शरुआती लक्षण दिखाई देने पर कल मेरा कोरोना टेस्ट किया गया, जिसकी रिपोर्ट पॉज़िटिव आयी है. ऑरबिंदो हॉस्पिटल में एडमिट हूं. दुआ कीजिये जल्द से जल्द इस बीमारी को हरा दूं. उन्होंने लोगों से अपील की है कि स्वास्थ्य के बारे में जानकारी के लिए बार-बार उन्हें या फिर परिवार को फोन न करें, इसकी जानकारी ट्विटर और फेसबुक के माध्यम से सभी को मिलती रहेगी.

https://youtu.be/ZBTObQ7QGPo

मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म में गीत लिखे
राहत इंदौरी ने बरकतुल्लाह यूनिवर्सिटी से उर्दू में एमए किया था। भोज यूनिवर्सिटी ने उन्हें उर्दू साहित्य में पीएचडी से नवाजा था। राहत ने मुन्ना भाई एमबीबीएस, मीनाक्षी, खुद्दार, नाराज, मर्डर, मिशन कश्मीर, करीब, बेगम जान, घातक, इश्क, जानम, सर, आशियां और मैं तेरा आशिक जैसी फिल्मों में गीत लिखे।

बेघर हुआ था परिवार
1 जनवरी 1950। वह दिन रविवार का था, जब रिफअत उल्लाह साहब के घर राहत साहब की पैदाइश हुई। इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक, ये 1369 हिजरी थी और तारीख 12 रबी उल अव्वल थी। राहत साहब के वालिद रिफअत उल्लाह 1942 में सोनकछ देवास जिले से इंदौर आए थे। राहत साहब का बचपन का नाम कामिल था। बाद में इनका नाम बदलकर राहत उल्लाह कर दिया गया।
उनका बचपन मुफलिसी में गुजरा। वालिद ने इंदौर आने के बाद ऑटो चलाया। मिल में काम किया। लेकिन उन दिनों आर्थिक मंदी का दौर चल रहा था। 1939 से 1945 तक दूसरे विश्वयुद्ध का भारत पर भी असर पड़ा। मिलें बंद हो गईं या वहां छंटनी करनी पड़ी। राहत साहब के वालिद की नौकरी भी चली गई। हालात इतने खराब हो गए कि राहत साहब के परिवार को बेघर होना पड़ गया था।

राहत साहब की मशहूर शायरी….

बुलाती है मगर जाने का नहीं
ये दुनिया है इधर जाने का नहीं

मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर
मगर हद से गुज़र जाने का नहीं

ज़मीं भी सर पे रखनी हो तो रखो
चले हो तो ठहर जाने का नहीं

सितारे नोच कर ले जाऊंगा
मैं खाली हाथ घर जाने का नहीं

वबा फैली हुई है हर तरफ
अभी माहौल मर जाने का नहीं

वो गर्दन नापता है नाप ले
मगर ज़ालिम से डर जाने का नहीं

 

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