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आत्मनिर्भर | पारंपरिक खेती छोड़ कर दो एकड़ जमीन को इको टूरिज्म सेंटर में बदला, सालाना टर्नओवर 50 लाख रुपए का

हम सभी यह जानते है कि पिछले कुछ सालों से इको टूरिज्म का ट्रेंड बढ़ा है। बड़े शहरों के लोग विलेज लाइफ का लुत्फ लेने के लिए गांवों का रुख कर रहे हैं। वे गांवों में कुछ दिन रुकते हैं, लोगों से मिलते हैं, वहां के कल्चर और खान-पान का आनंद लेते हैं। उत्तराखंड के नैनीताल जिले के रहने वाले तीन दोस्तों ने इसी मॉडल पर अपनी बंजर जमीन को इको टूरिज्म सेंटर के रूप में तब्दील कर दिया। आज उनके यहां न सिर्फ देशभर से बल्कि विदेशों से भी टूरिस्ट आ रहे हैं। इससे सालाना 40 से 50 लाख रुपए का वे बिजनेस कर रहे हैं। खुद तो आत्मनिर्भर हुए ही है साथ में 50 से ज्यादा लोगों को उन्होंने रोजगार से भी जोड़ा है।

36 साल के शेखर और 39 साल के नवीन दोनों भाई हैं। जबकि 50 साल के राजेंद्र उन्हीं के गांव के रहने वाले हैं। शेखर के पिता खेती करते थे। आमदनी बहुत अधिक नहीं होती थी। परिवार के लिए कोई और सोर्स ऑफ इनकम भी नहीं था। इसी वजह से शेखर को 12वीं के बाद पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी। शेखर ने बताया कि हमने कुछ सालों तक टूरिज्म फील्ड में काम किया। एक प्राइवेट संस्था ने भी हमारे यहां टूरिज्म का काम कुछ दिन किया था। हम लोग भी उससे जुड़े थे, लेकिन बाद में किसी विवाद के चलते उसे यहां से जाना पड़ा।

खेती की जमीन को बना दिया जंगल

शेखर कहते हैं कि टूरिज्म से हमें लगाव था और काम का ठीक ठाक अनुभव भी हो गया था। इसलिए हम चाहते थे कि अपनी जो थोड़ी बहुत जमीन है उसे एक इको टूरिज्म सेंटर के रूप में बदलें। लेकिन यह काम इतना आसान नहीं था, क्योंकि जंगल एक दिन में तैयार नहीं किए जा सकते। साल 2011 में तीनों ने मिलकर अपनी खेती की जमीन को जंगल में तब्दील करना शुरू किया। एक के बाद एक नए-नए प्लांट लगाए, बागवानी की। इसके साथ ही टूरिस्टों के ठहरने के लिए टेंट कैम्प भी लगाए। ये टेंट अमेरिकन सफारी के बने थे। इसके लिए उन्हें बैंक से लोन लेना पड़ा था।

शेखर बताते हैं कि यह कैंप सीजनल था। यानी एक खास सीजन में टूरिस्ट यहां रुकते थे, जंगल और गांवों का भ्रमण करते थे फिर चले जाते थे। इससे कुछ कमाई तो होती थी लेकिन बाकी के सीजन में खाली हाथ वक्त गुजारना पड़ता था। हमारे पास तब बजट भी कम था इसीलिए हम नए और मॉडर्न कैंप डेवलप भी नहीं कर पा रहे थे।

सैलानियों के ठहरने के लिए मिट्टी के कैंप

कुछ साल बाद जब थोड़े बहुत पैसे हो गए तो उन्होंने स्थाई कैंप का निर्माण शुरू किया। ताकि हर सीजन में सैलानी यहां रुक सकें। इसके लिए उन्होंने सीमेंट की बजाय मिट्टी के घर बनवाए ताकि पूरी तरह इको फ्रेंडली हो और उसमें गांव के कल्चर की झलक हो। इसमें सेपरेट वॉशरूम और टॉयलेट की भी सुविधा है। इसका नाम उन्होंने मड कैंप रखा है। कैंप के चारों तरफ जंगल है। जिसमें अलग-अलग किस्म के प्लांट हैं। यहां 50 से ज्यादा तरह के पक्षियों के भी ठिकाने हैं। सैलानियों के लिए ठहरने के साथ ही उनके भोजन की भी व्यवस्था है। वह भी पूरी तरह से पारंपरिक और ऑर्गेनिक तरीके से बने। इसमें गांव के खेतों में उगने वाले प्रोडक्ट्स का ही इस्तेमाल किया जाता है। फिलहाल उनके पास 15 टेंट और 9 मड कैंप हैं।

पीने के लिए साफ पानी। पारंपरिक चूल्हे पर बना खाना। और पहाड़ी चाय सैलानियों को मिलती है। कोई भी सैलानी अपनी मर्जी के मुताबिक जितना दिन चाहे रुक सकता है। यहां भी सुविधा के मुताबिक अलग-अलग चार्जेस हैं। सैलानियों के लिए जंगल भ्रमण, गांवों की सैर, लोगों से मिलना, फार्मिंग को करीब से देखना, सीखना, लोकल कल्चर को समझना, नदियों और पहाड़ों की खूबसूरती के दीदार के लिए विशेष सुविधा है। यहां साइकिलिंग और एडवेंचर पार्क की भी सुविधा है। इन सबके लिए गाइड भी रखे गए हैं जो सैलानियों को घुमाने में मदद करते हैं।

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